Saturday 10 June 2017

रोती बहन लिखूँ या बिलखती माँ लिखूँ
लाचार बेटी लिखूँ या सिसकतीं नन्ही जाँ लिखूँ
क़लम से आवेश लिखूँ या बहते  नयन लिखूँ....
तुम्हें दरिंदा ना लिखूँ तो बताओ कैसे इंसान लिखूँ .....

नारी की जहाँ पूजा होती थी ...कहाँ गया वो देश ....
पर औरत को आदर से देखा जाता था कहाँ मिट गया वो परिवेश ......
पश्च्त्या संस्कृति को कोई दोष नहीं ...हम ही अपने संस्कार भूल चुके ......
ज़ुल्म की इंतिहा तुम्हारी होती है ....दोषी ठहरा देते हो औरत का वेश .....


बीच सड़क पे नीलाम होती इज़्ज़त लिखूँ या बंद कमरों का रुदन गान लिखूँ ....
तुम्हें दरिंदा ना लिखूँ तो बताओ कैसे इंसान लिखूँ .....

हर सड़क ...हर गली हर मोहल्ले में बस व्यभिचारियों का ही बसेरा है ....
कैसी ये रात हुई है जिसका नज़र ना आता कोई सवेरा है .....
अपनी बहन की इज़्ज़त करते हो ...फिर दूजे की बहन से कैसे खेल जाते हो .....
जिस्म जिस्म है ...रिश्ता रिश्ता है ....फिर चाहे वो तेरा है या मेरा है

कुछ ऐसा मंज़र भी आए ....अपमान ना लिखू बस महिला का सम्मान ही लिखूँ .....
तुम्हें दरिंदा ना लिखूँ तो बताओ कैसे इंसान लिखूँ

Dr.sanjay yadav

2 comments:

  1. मानवीय संवेदनाओं का अंत और उस पर अच्छा प्रहार है!!

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  2. धन्यवाद प्रभात जी

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