हक़ीक़त
फ़ुर्सत नहीं अंदर की ....खिड़की से बाहर झाँक रहा है
ख़ुद का किरदार कभी न तौला ...हर सखस यहाँ दूजे का किरदार आंक रहा है
दौर है ये आडंबर का ....दिखावा पहचान बना है ....
कपड़ों में है साज सज्जा ...चरित्र कोने में धूल फाँक रहा है ......
चेहरे की चमक दमक का दौर है ये ....भावों का कोई मोल नहीं .....
दौलत के क़दमों में पसरा ...इंसान इंसानियत की क़ीमत कम आँक रहा है
हाथ से हाथ तो मिला रहा ...दिल का हाल बताने की फ़ुर्सत नहीं ....
रूह है ज़ख़्मी ...मगर इंसान लिबास पे पेबंद टाँक रहा है
Dr.sanjay yadav ....
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